जब आज पीछे मुड़कर देखती हूं, तो यह अनुभव होता है कि जीवन की हर घटना एक-दूसरे से गहराई से जुड़ी हुई प्रतीत होती है। किंतु यदि मैं सत्य कहूं, तो मैंने कभी यह नहीं सोचा था कि मैं पीएचडी करुंगी या लेखन के प्रति गंभीर अभिरुचि विकसित होगी। यह सब मानो अनायास ही हुआ, जैसे जीवन स्वयं मुझे इस दिशा में खींच लाया हो।
मैं जयपुर कुछ भिन्न स्वप्नों के साथ आई थी, और राजनीति विज्ञान विषय का चयन भी किसी ठोस योजना के तहत नहीं, बल्कि कुछ अलग उद्देश्यों की पूर्ति हेतु किया गया था। मेरे लिए उस समय यह विषय मात्र एक विकल्प भर था एक ऐसा माध्यम जिससे मैं अपने छोटे से गांव से बाहर निकलकर थोड़ी खुली हवा में सांस ले सकूं, और जीवन को कुछ दूरी से निहार सकूं। वास्तव में, मेरा प्रमुख आकर्षण राजस्थान विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग से कहीं अधिक स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स में मार्शल आर्ट्स की नियमित अभ्यास-प्रक्रिया तथा भविष्य में स्वयं की एकेडमी की स्थापना की कल्पना से जुड़ा हुआ था।
एम.ए. की पढ़ाई मेरे लिए अधिकतर एक औपचारिकता थी, एक सामाजिक एवं भौगोलिक दायरे से बाहर निकलने का साधन। मैं जीवन को एक बाहरी दर्शक की भांति अनुभव करना चाहती थी। राजनीति विज्ञान का चयन भी इस विचार के साथ किया गया कि यह विषय प्रशासनिक सेवाओं की तैयारी में सहायक हो सकता है एक “बैकअप प्लान” के रूप में।
परंतु समय के साथ परिस्थितियां और अनुभव परिवर्तित होते गए। पहले असाइनमेंट्स, फिर मिड-सेमेस्टर परीक्षाएं, और अंततः फाइनल परीक्षाएं शैक्षणिक गतिविधियों का निरंतर प्रवाह बना रहा, और इसी क्रम में अध्ययन में मेरी वास्तविक रुचि भी विकसित होने लगी। अधिकांश विषयों में मैं बिना अधिक प्रयास के संतोषजनक प्रदर्शन कर पा रही थी, किंतु अंतर्राष्ट्रीय संबंध विषय के हमारे एक प्रोफेसर अपनी अध्यापन शैली, कार्य के प्रति गहन निष्ठा और प्रेरणादायक दृष्टिकोण के कारण मेरे लिए अत्यंत प्रभावशाली सिद्ध हुए। उनके प्रति मेरे मन में गहन सम्मान और श्रद्धा का भाव विकसित हुआ।
जब मैंने उन्हें एक असाइनमेंट प्रस्तुत किया, तो उनकी आंखों में मेरे लिए प्रशंसा के भाव स्पष्ट परिलक्षित हुए। उन्होंने मेरे कार्य की सराहना की और मुझे प्रोत्साहित किया, जिससे मेरे आत्मविश्वास में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। यद्यपि मेरे भीतर अनेक संदेह और अनिश्चितताएं थीं, फिर भी उनके समान बनने की प्रेरणा ने मुझे भीतर तक आंदोलित किया।
उस समय विश्वविद्यालय में अधिकांश विद्यार्थी यूजीसी-नेट की परीक्षा की तैयारी में संलग्न थे। उनके साथ होने के भाव से प्रेरित होकर मैंने भी परीक्षा फॉर्म भर दिया, यह सोचते हुए कि कम-से-कम नेट परीक्षा तो उत्तीर्ण हो ही जाएगी। किंतु भाग्यवश जेआरएफ भी प्राप्त हो गया। एम.ए. की डिग्री पूर्ण हो चुकी थी, और अब पीएचडी में प्रवेश लेने की आवश्यकता और प्रासंगिकता दोनों ही थीं, विशेषकर वित्तीय समर्थन के संदर्भ में।
मैंने चाहा था कि यह शोधकार्य राजस्थान विश्वविद्यालय से ही संपन्न हो, परंतु प्रवेश प्रक्रिया में बार-बार विलंब होता जा रहा था। इसी अवधि में पंडित दीनदयाल उपाध्याय शेखावाटी विश्वविद्यालय में प्रक्रिया प्रारंभ हो चुकी थी, और यह स्थान मेरे निवास-क्षेत्र के अधिक समीप था। अतः व्यवहारिक दृष्टिकोण अपनाते हुए मैंने वहीं आवेदन किया। बिना विशेष तैयारी के मैंने प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण कर ली, किंतु इसके पश्चात् आने वाले प्रत्येक चरण ने मुझे निराशा, अनिश्चितता और मानसिक तनाव से घेर लिया।
पीएचडी प्रवेश के उपरांत प्रथम कार्य था शोध प्रारूप (Research Proposal) का निर्माण। वर्तमान में जब मैं उस समय को स्मरण करती हूं, तो एक प्रकार की सहज हंसी आ जाती है, परंतु उस समय यह अनुभव अत्यंत भयावह था। विषय का चयन करना, प्रस्ताव का खाका बनाना, प्रारंभिक साहित्य की खोज इन सभी में एक प्रकार की दिशाहीनता और भ्रम की स्थिति बनी हुई थी। न तो यह समझ आ रहा था कि टॉपिक क्या हो, न यह कि शुरुआत कहां से की जाए, और न ही यह स्पष्ट था कि कितना और क्या पढ़ना चाहिए।
इन सब जटिलताओं के मध्य मुझे स्मरण आया कि हमारे गांव के ही एक वरिष्ठ शोधार्थी, विष्णु सर, जेएनयू से पीएचडी कर रहे हैं। उनसे पूर्व परिचय और उनके अनुभव को ध्यान में रखते हुए मैंने उनसे मार्गदर्शन प्राप्त करने का निर्णय लिया। उन्होंने न केवल विषय के चयन में मेरी सहायता की, बल्कि एक प्रारंभिक, यद्यपि औपचारिक, शोध प्रस्ताव तैयार करवाने में भी सहयोग किया।
इसके पश्चात अनुसंधान-साक्षात्कार की बारी थी। यह मेरा प्रथम साक्षात्कार था, अतः एक स्वाभाविक भय था। हालांकि, वास्तविक अनुभव अपेक्षाकृत सहज रहा और मैंने तृतीय स्थान (Third Rank) के साथ प्रवेश प्राप्त किया।
प्रारंभिक चरण में जो एकमात्र सकारात्मक अनुभूति थी, वह थी विश्वविद्यालय परिसर की सुंदरता। किंतु इस सौंदर्य के मध्य भी मेरे मन में निरंतर तनाव, संशय और असहायता की भावना बनी रहती थी। प्रत्येक नई प्रक्रिया, प्रत्येक दस्तावेजी औपचारिकता, यहां तक कि स्कॉलरशिप आरंभ कराने की प्रक्रिया तक हर छोटी-बड़ी बात को लेकर इतनी जटिलता और अस्पष्टता थी कि बार-बार आंखों में आंसू आ जाते।
चूंकि मेरे परिवार या मित्रों में कोई ऐसा नहीं था जो इस प्रक्रिया से पूर्व में गुजर चुका हो, अतः हर निर्णय, हर कदम स्वयं ही तय करना होता था। विश्वविद्यालय के कार्यालयों के अनेक चक्कर लगाने पड़ते, दिनभर प्रतीक्षा के बाद भी कोई कार्य न होता। मुझे बार-बार यह विचार आता कि मुझे यह शोधकार्य नहीं करना चाहिए था विशेषकर इस विश्वविद्यालय से तो बिल्कुल भी नहीं।
फिर भी, समय के साथ चीजें धीरे-धीरे आगे बढ़ती रहीं। शोध-प्रस्ताव, सिनॉप्सिस, और तत्पश्चात शोध-पत्र जैसे कार्यों ने जब-जब प्रारंभिक चरण में मुझे अत्यधिक मानसिक दबाव में डाला, तब-तब उनके पूर्ण हो जाने के पश्चात यह अनुभूति होती कि वास्तव में तो कार्य इतना कठिन था ही नहीं मैं अनावश्यक ही मानसिक रूप से परेशान हो रही थी।
धीरे-धीरे मैंने अपने शोध-विषय से संबंधित साहित्य का अध्ययन प्रारंभ किया। आरंभ में यह प्रक्रिया अत्यंत नीरस और उबाऊ प्रतीत होती थी। प्रासंगिक सामग्री का अभाव, शोध-लेखों की निम्न गुणवत्ता और बार-बार निरर्थक तथ्यों से जूझना ये सब मिलकर एक प्रकार की मानसिक थकान उत्पन्न करते थे। कई बार घंटों पढ़ने के बाद भी उपयोगी जानकारी न मिल पाने के कारण गहरी निराशा होती थी। लगता था जैसे मैं किसी अंधेरे सुरंग में चल रही हूं जहां प्रकाश की कोई किरण नहीं दिखाई दे रही।
फिर भी, इस संघर्षपूर्ण पठन प्रक्रिया में भी कुछ परिवर्तन आने लगे। मैंने समझा कि यह अध्ययन, पूर्ववर्ती स्कूल, कॉलेज या प्रतियोगी परीक्षाओं के पठन से भिन्न है। यहां उद्देश्य केवल तथ्यों को याद करना नहीं, बल्कि उन्हें गहराई से समझना, आलोचनात्मक दृष्टिकोण से विश्लेषण करना और अपने विचारों को क्रमबद्ध रूप देना है। यह अनुभव मेरे लिए पूर्णतः नवीन था।
धीरे-धीरे मेरी रुचि विकसित होने लगी। शोध केवल जानकारी एकत्र करने की प्रक्रिया नहीं रह गया, बल्कि यह एक सृजनात्मक और बौद्धिक यात्रा का रूप लेने लगा। अब जब मैं कोई शोधपत्र पढ़ती हूं, तो उसमें न केवल लेखक की भाषा, दृष्टिकोण और तर्कशैली को समझने की कोशिश करती हूं, बल्कि यह भी सोचती हूं कि उसमें क्या जोड़ा जा सकता था, क्या छोड़ा गया है, और उसका वास्तविक योगदान विषय के व्यापक विमर्श में क्या है।
पीएचडी अब केवल एक डिग्री प्राप्त करने की औपचारिकता नहीं रह गई, बल्कि यह एक आंतरिक आत्मसंवाद, आत्मविकास और निरंतर सीखने की प्रक्रिया बन गई है। अपने पुराने डर, असहजता और असमंजस को पार करते हुए मैं यह अनुभव कर रही हूं कि शोध करना वास्तव में किसी अनजान सफर पर निकल पड़ने जैसा है जहां हर मोड़ पर कुछ नया जानने, समझने और स्वयं को ढालने का अवसर मिलता है।
यह यात्रा अभी भी जारी है, लेकिन अब मुझे यह डर नहीं लगता कि आगे क्या होगा। अब हर चुनौती को एक अवसर की भांति देखने की दृष्टि विकसित हो रही है। मुझे ज्ञात है कि मैं उसी दिशा में बढ़ रही हूं जहां मुझे होना चाहिए।

