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राजस्थान में छात्र संघ चुनाव: इतिहास से वर्तमान संघर्ष तक

हाल ही में राजस्थान सरकार ने राजस्थान छात्रसंघ चुनाव को लेकर उच्च न्यायालय में सुनवाई के दौरान राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) के क्रियान्वयन की प्रक्रिया और राजस्थान के 9 विश्वविद्यालयों के कुलपतियों द्वारा चुनाव कराने से शैक्षणिक कार्यक्रम प्रभावित होने और विश्वविद्यालय परिसर का माहौल बिगड़ने की आशंकाओं का हवाला देते हुए वर्तमान शैक्षणिक सत्र में चुनाव कराए जाने को अव्यावहारिक बताया है। सरकार ने अपने हलफनामे में लिंगदोह समिति की उस सिफारिश का भी उल्लेख किया, जिसमें कहा गया था कि सत्र शुरू होने के 6-8 सप्ताह के भीतर चुनाव कराए जाने चाहिए ।

हालांकि यह नया नहीं है, सरकारें प्रतिकूल परिस्थितियों के चलते समय – समय पर इस तरह के कदम उठाती रही हैं।

छात्र राजनीति का विकास:

भारत में छात्र राजनीति की अनौपचारिक शुरुआत 20वीं सदी के प्रारम्भ में स्वतंत्रता संग्राम के दौर से ही हो गई थी। छात्रों ने 1905 के बंगाल विभाजन के खिलाफ विरोध प्रदर्शन से लेकर असहयोग आंदोलन (1920), सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930) एवं भारत छोड़ो आंदोलन (1942) में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1920 के दशक में प्रांतीय छात्र परिषद बनने लगीं थीं तथा 12 अगस्त 1936 को ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन (AISF) के रूप में भारत का पहला छात्र संगठन अस्थित्व में आया।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद औपचारिक रूप से राजनीतिक छात्र संगठनों का निर्माण हुआ, जिनका आधार विचारधारात्मक विविधता थी। 9 जुलाई 1949 को अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP) के रूप में RSS की छात्र शाखा का निर्माण हुआ। वामपंथी छात्र संगठन स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (SFI) का गठन 30 दिसंबर 1970 को केरल के तिरुवनंतपुरम में किया गया। इंदिरा गांधी ने 9 अप्रेल, 1971 को इण्डियन नेशनल कॉन्ग्रेस (INC) की छात्र शाखा नेशनल स्टूडेंट्स यूनियन ऑफ इण्डिया ( NSUI) का निर्माण केरल छात्र संघ और पश्चिम बंगाल राज्य छात्र परिषद को मिलाकर एक राष्ट्रीय छात्र संगठन के रूप में किया। लालू प्रसाद यादव, अरुण जेटली व सुषमा स्वराज इत्यादि कई राष्ट्रीय स्तर के नेता इसी दौर की छात्र राजनीति से निकले।

1970 के दशक में जेपी आंदोलन (1974) आपातकाल (1975-77) जैसी महत्वपूर्ण घटनाओं के कारण छात्र राजनीति का स्पष्ट राजनीतिकरण हुआ । इस समय छात्र संगठनों की राजनीतिक सक्रियता इतनी बढ गयी थी कि राष्ट्रीय राजनीति के मुद्दे सीधे छात्र राजनीति में उतरने लगे थे।

1990 में मंडल आयोग की सिफारिशों के लागू होने के बाद छात्र राजनीति में जातीय पहचान, आक्रामक विरोध- समर्थन की प्रवृत्ति उग्र हुई। परिणामस्वरुप 1999 में छात्र राजनीति में बढ़ती हिंसा, चुनावी अनियमिता, धन-बल और राजनीतिक दलों की अनावश्यक दखल के कारण कई राज्यों में छात्र संघ चुनाव स्थगित हुए।

इन परिस्थितियों को देखते हुए माननीय सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त श्री जे. एम. लिंगदोह की अध्यक्षता में छात्र संघ चुनाव से संबंधित पहलुओं की जांच व सिफारिश हेतु समिति का गठन किया गया, जिसने 2006 में अधिकतम आयु सीमा, चुनाव में व्यय सीमा (अधिकतम ₹5000 ). चुनाव प्रचार क्षेत्र निर्धारण आदि को लेकर अपनी अनुशंसाएं दी। इन अनुशंसाओं का जिक्र तो अक्सर कर दिया जाता है, लेकिन इनको अमल में लाया जाना अभी भी प्रश्नगत है।

राजस्थान में छात्र संघ चुनाव राष्ट्रीय नेताओं के लिए प्रशिक्षण केंद्र के रूप में रहे हैं। राजस्थान में छात्र राजनीति के आधार स्थल राजस्थान विश्वविद्यालय (जयपुर), जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय (जोधपुर), मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय (उदयपुर), कोटा विश्वविद्यालय ( कोटा ). महार्षि दयानंद सरस्वती विश्वविद्यालय (अजमेर). महाराजा गंगा सिंह विश्वविद्यालय (बीकानेर) तथा भरतपुर, श्रीगंगानगर, अलवर के प्रमुख सरकारी कॉलेज परिसर रहे हैं। अशोक गहलोत, सचिन पायलट, हनुमान बेनीवाल, रविन्द्र सिंह भाटी व राजेंद्र राठौड़ आदि नेता छात्र संघ चुनावों से ही निकले हैं।

राजस्थान विश्वविद्यालय छात्र संघ (RUSU ) चुनावों की शुरुआत 1967 में छात्र कल्याण के मुद्दों से हुई, लेकिन 19वीं सदी के अंतिम दो दशकों में इन पर राजनीतिक दलों का प्रभाव बढ़ा। इसके चलते चुनाव कई बार निलंबित हुए। 2003-2008 में भाजपा सरकार ने हिंसा के कारण चुनाव बंद किए, जिन्हें कांग्रेस सरकार ने 2010 में बहाल किया। तत्पश्चात 2020 में कांग्रेस सरकार द्वारा कोविड-19 के कारण स्थगन एवं 2022 में पुन बहाली के बाद चुनाव संपन्न हुए जिसमें अधिकतर स्वतंत्र उम्मीदवारों को जीत हासिल हुई। राजस्थान की कांग्रेस सरकार ने 2023 में छात्र चुनावों को राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) कार्यान्वयन का हवाला देकर फिर से निलंबित कर दिया।

छात्र संघ चुनावों को लेकर चुनौतियाँ:

राजस्थान में छात्रसंघ चुनावों के सामने कई गंभीर और जटिल चुनौतियाँ हैं। इन चुनौतियों ने ही पहले चुनावों को निलंबित करने के फैसले को जन्म दिया था, और इन्हीं के कारण बहाली की प्रक्रिया दुष्कर बनी हुई है:

1. उपद्रव और अशान्ति का डर

1990 के दशक में हुई हिंसक घटनाएँ अभी भी प्रशासन और शिक्षाविदों के मन में गहरे बैठी हैं। कैंपस में बाहरी तत्वों या गैर-छात्र तत्वों के घुसपैठ के कारण प्रितिद्वंद्वी संगठनों के बीच तनाव कब हिंसा में बदल जाए, इसका भय लगातार बना रहता है।

2. राजनीतिक दलों का अनुचित हस्तक्षेपः

ABVP और NSUI जैसे छात्र संगठन सीधे राष्ट्रीय राजनीतिक दलों (भाजपा और कांग्रेस) से सम्बद्ध हैं। अतः छात्र संघ चुनाव इन दलों के लिए युवा वोट बैंक तैयार करके राजनीतिक लाभ हासिल करने का मंच बन जाते हैं शिक्षा की गुणवत्ता, बुनियादी ढांचा, फीस आदि छात्रों के वास्तविक कैंपस – केंद्रित मुद्दे राष्ट्रीय राजनीतिक मुद्दों के प्रवेश के कारण पीछे छूट जाते हैं। गैर-राजनीतिक या छोटे छात्र संगठनों के पास संसाधन और संगठनात्मक ताकत के अभाव के कारण चुनाव लड़ना और जीतना बेहद मुश्किल होता है।

3. चुनावी अनियमितताएँ और कदाचारः

इन चुनावों में धनबल का खुलकर प्रयोग आर्थिक रूप से कमजोर उम्मीदवारों को आगे आने से रोकता है। विद्यार्थियों को प्रलोभकारी प्रस्ताव देकर या दबाव बनाकर वोट प्राप्त करने की कोशिशें भी की जाती हैं।

4. जातिगत और सामाजिक विभाजनः

राजस्थान की सामाजिक संरचना के कारण प्रत्याशियों का चयन और वोट प्राप्ति की रणनीतियाँ अक्सर जातिगत समीकरणों पर आधारित होती हैं। महिला उम्मीदवारों को प्रभावी पद न देना, अल्पसंख्यक छात्रों का कम प्रतिनिधित्व भी छात्र संघ चुनावों में महत्वपूर्ण चुनौतियाँ हैं।

5. प्रशासनिक और संस्थागत रुकावटें:

विश्वविद्यालय प्रशासन पर अक्सर निष्पक्ष न होने का आरोप लगता है, जिससे पारदर्शी चुनाव प्रक्रिया सुनिश्चित करना कठिन हो जाता है। दिशा-निर्देशों का प्रभावी क्रियान्वयन और समय के साथ उनकी प्रासंगिकता बनाए रखना भी चुनौतीपूर्ण है। चुनावी प्रक्रिया शैक्षणिक गतिविधियों यथा- कक्षाओं, परीक्षाओं पर नकारात्मक प्रभाव डालती हैं।

समाधान पक्षः

राजस्थान में छात्रसंघ चुनावों के सार्थक आयोजन के लिए निम्नलिखित व्यावहारिक समाधानों पर विचार किया जा सकता है

1. सख्त आचार संहिता एवं निगरानी तंत्रः

नियम उल्लंघन, धांधली या हिंसा जैसी स्थिति में उम्मीदवारों की अयोग्यता के कड़े प्रावधान होने चाहिए। चुनाव प्रक्रिया खर्च सीमा, प्रचार अवधि और आचरण के लिए लिंगदोह समिति की अनुशंसाओं को सख्ती से लागू किए जाने के साथ चुनावों पर नजर रखे जाने के लिए पूर्व न्यायाधीशों, शिक्षकों और नागरिक समाज प्रतिनिधियों से युक्त स्वतंत्र निगरानी समितियों का गठन करना चाहिए।

2. राजनीतिक हस्तक्षेप पर लगामः

चुनाव अवधि के दौरान कैंपस में राष्ट्रीय व क्षेत्रीय राजनीतिज्ञों का प्रवेश पूर्णतः वर्जित होना चाहिए। कैम्पस में चुनाव प्रचार के दौरान राष्ट्रीय दलों के प्रतीकों के उपयोग पर पूर्णतः रोक हो ।

3. शांतिपूर्ण चुनाव सुनिश्चित करनाः

चुनावों के दौरान शांति बनाए रखने हेतु पुलिस-प्रशासन समन्वय के साथ सीसीटीवी कवरेज, ऑनलाइर वोटिंग और ई-प्रचार जैसे डिजिटल समाधानों को बढावा दिया जाना चाहिए। हिंसा की सम्भावना वाले मुद्दों पर छात्र – प्रशासन संवाद सत्र आयोजित किये जाने चाहिए।

4. जागरूकता अभियान:

NSS/NCC के सहयोग से वोट फॉर इश्यूज, नॉट कास्ट” जैसे कैंपस कैंपेन के माध्यम से छात्रों में जागरूकता लाने का प्रयास करना चाहिए।

5. संस्थागत सुधारः

चुनाव घोषणापत्रों में कैंपस केंद्रित मुद्दे (पुस्तकालय शिक्षण गुणवत्ता व छात्रावास आदि) ही अनिवार्य कर छात्र कल्याण को प्राथमिकता दी लानी चाहिए नये निर्वाचित पदाधिकारियों के लिए नेतृत्व प्रशिक्षण कार्यशालाएँ आयोजित कर क्षमता निर्माण का कार्य किया जाना चाहिए। शैक्षणिक कैलेंडर का सम्मान सुनिश्चित किया जाना चाहिए।

6. वैकल्पिक मॉडल की खोज:

छोटे संगठनों को प्रतिनिधित्व देने हेतु विभाग / वर्ग आधारित रोटेशनल प्रतिनिधित्व और शैक्षणिक प्रदर्शन और सामाजिक योगदान के आधार पर पदों का आवंटन करके पोर्टफोलियो-आधारित नियुक्ति का प्रावधान किया जा सकता है।

इस सबके बावजूद छात्रसंघ चुनावों की सफलता के लिए सबसे आवश्यक तत्व राज्य सरकार और विश्वविद्यालयों की ओर से निष्पक्षता का सार्वजनिक संकल्प लेना है। छात्र हितों को राजनीति से ऊपर रखने के मूलसूत्र के साथ सभी हितधारकों (छात्र प्रशासन, राजनीतिक दल आदि) की सामूहिक जिम्मेदारी आवश्यक है।

यदि छात्रसंघ वास्तव में छात्रों का स्वर बन सके, तो यह भारतीय लोकतंत्र को मजबूत करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम होगा। लेकिन इस हेतु सबसे महत्वपूर्ण है- छात्र संघ चुनावों का सुचारू रूप से आयोजन |

Author

  • I am a Ph.D. scholar at Maharaja Surajmal Brij University (MSBU), Bharatpur.

    My research interests span literature, subaltern studies, socio-economic issues, governance and public policy, and the broader field of international affairs. I focus on how these domains intersect and shape contemporary intellectual and political discourse.


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5 responses

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    Content is too good sir

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    Amazing words and solutions is laconic and limpid ,thanks for sharing ❤️

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    Looking forward to this kind of informative pieces

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