1947 में राजधानी जयपुर में स्थापित राजस्थान विश्वविद्यालय न केवल इस राज्य का, बल्कि समूचे उत्तर भारत का उच्च शिक्षा में एक गौरवशाली केन्द्र रहा है। इस विश्वविद्यालय ने शिक्षा, शोध, नेतृत्व और सिविल सेवाओं में देश को अनेक योगदान दिए हैं। यहां से निकले छात्रों ने देश और समाज के हर क्षेत्र में प्रतिष्ठा अर्जित की है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इस ऐतिहासिक संस्थान की दशा और दिशा दोनों ही विकृत होती जा रही हैं। इसके लिए अकेले कोई एक पक्ष नहीं, बल्कि सरकार, विश्वविद्यालय के कुलपति, प्रशासन, शिक्षक और स्वयं छात्र – हम सभी जिम्मेदार हैं। जो विश्वविद्यालय कभी भारत के बौद्धिक स्वाभिमान का प्रतीक था, वह आज उपेक्षा, अव्यवस्था और अविश्वास की गिरफ्त में है। संवाद समाप्त हो चुका है, विश्वास टूट चुका है और एक अकथनीय ठहराव ने पूरे शैक्षणिक वातावरण को जकड़ लिया है।
25 सितंबर 2023 को जब राजस्थान विश्वविद्यालय ने पहली महिला कुलपति प्रो. अल्पना कटेजा का स्वागत किया, तो पूरा विश्वविद्यालय परिवार एक नई उम्मीद से भरा हुआ था। लेकिन हकीकत ने इस आशा को क्रूरतापूर्वक तोड़ दिया। 26 जुलाई 2024 को विश्वविद्यालय के इतिहास में पहली बार छात्राओं को 5000 रुपये के बन्धपत्र पर मजिस्ट्रेट द्वारा पाबंद किया गया कि वे शांति भंग नहीं करेंगी। उनका “अपराध” यह था कि उन्होंने कुलपति आवास पर छात्रावासों में मैस फीस वृद्धि और अव्यवस्थाओं के विरोध में प्रदर्शन किया था। क्या यही अपेक्षा थी विश्वविद्यालय की पहली महिला कुलपति से? सोचिए, जो छात्राएं गांव-देहात से उच्च शिक्षा का सपना लेकर आई हैं, उनके घर जब मजिस्ट्रेट का समन पहुँचा होगा, तो उनके परिवारों पर क्या बीती होगी? उन्होंने अपने माता-पिता को कैसे समझाया होगा कि यह समन क्यों आया है? और समाज ने, आस-पड़ोस ने क्या-क्या कहा होगा?
इसी कुलपति से जुड़ा एक और बड़ा मुद्दा तब सामने आया जब लगभग 80 सीटें खाली होने के बावजूद शोध छात्राओं को छात्रावास से निकाल दिया गया, यह कहकर कि नियमों की बाध्यता है। यह सब तब हुआ जब स्वयं कुलपति ने उन्हें शपथ-पत्र लेकर एडमिशन दिलाने का वादा किया था। लेकिन वह वादा सिर्फ एक झांसा निकला। प्रशासन द्वारा महिला सशक्तिकरण के दावों और वास्तविकता के बीच की खाई बहुत गहरी है। और यही गहरी खाई उस समय और भी चुभने लगी जब उम्मीदें किसी महिला नेतृत्व से थीं। आधी आबादी को शायद किसी पुरुष कुलपति से इतनी अपेक्षा नहीं होती, जितनी एक महिला कुलपति से होती है।
एक विश्वविद्यालय तभी प्रगति करता है जब वहां विचारों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति, खुला संवाद, और हर पक्ष की सहभागिता सुनिश्चित हो। राजस्थान विश्वविद्यालय की यही परंपरा रही है कुलपति और छात्रों के बीच संवाद, और जब यह टूटता तो छात्रनेता उस सेतु की भूमिका निभाते थे। लेकिन आज स्थिति पूर्णतः उलट हो चुकी है। कुलपति, शिक्षकों, छात्रों और कर्मचारियों किसी से संवाद नहीं कर रही हैं। एक सत्ता-केंद्रित ‘कमान्ड-कंट्रोल’ प्रणाली स्थापित हो चुकी है, जिसमें संवाद की जगह डर, संदेह और दूरी ने ले ली है।
हाल ही में PHD प्रवेश परीक्षा में खुलेआम UGC नियमों की अवहेलना हुई। बड़े स्तर पर फर्जीवाड़ा हुआ, जिससे सैकड़ों योग्य छात्रों के सपने टूट गए। छात्र व छात्र संगठन लगातार कई दिनों तक प्रदर्शन करते रहे, लेकिन कुलपति ने उनसे खुलकर संवाद करना ज़रूरी नहीं समझा। सिंडिकेट सदस्य श्री गोपाल शर्मा ने विधानसभा में सही ही कहा था: “यदि विश्वविद्यालय की कुलपति अपने ही बच्चों से नहीं मिल सकती, बच्चियां रात-रात भर अनशन पर बैठी रहें, तो ऐसी ‘गुरु’ कैसी..? क्या कोई मां अपने बच्चों को इस अवस्था में देख सकती है संवेदनहीनता के उदाहरण जैसे छात्र विकास यादव के पुल में डूबने की घटना हो, या गर्ल्स हॉस्टल में छात्रा की आत्महत्या का मामला हर घटना में प्रशासन की चुप्पी और संवेदनहीनता साफ़ नज़र आई। लेकिन यह हमारा राजस्थान विश्वविद्यालय तो नहीं था!
संविदा कर्मियों को महज़ ₹10,000 प्रति माह वेतन मिलता है। जब उन्होंने आवाज उठाई तो उनके नेताओं को निकाल दिया गया। RUTA उपाध्यक्ष के पत्राचार से यह भी स्पष्ट है कि शिक्षकों के साथ संवाद लगभग समाप्त हो चुका है। कुलपति की प्रशासनिक शैली ने विश्वविद्यालय को एक ऐसा संस्थान बना दिया है जहाँ कोई प्रश्न नहीं पूछ सकता, कोई आलोचना नहीं कर सकता, और जहाँ संवाद की बजाय आदेश, नेतृत्व की जगह नियंत्रण स्थापित हो चुका है।
राजस्थान विश्वविद्यालय प्रशासन में जहां पहले विनम्रता, उत्तरदायित्व और सहभागिता की संस्कृति थी, वहां अब अहंकार, पद का दुरुपयोग और विरोध करने वालों को प्रताड़ित करने की प्रवृत्ति ने जड़ें जमा ली हैं। विरोध किसी भी तरह से प्रशासन की अहम भावना को ठेस पहुँचाता है, और फिर हर बार पुलिसिया तंत्र का सहारा लिया जाता है। स्थिति तब और भी भयावह दिखी जब सरकार के प्रतिनिधि विधायकों तक की बात को प्रशासन ने अनदेखा कर दिया। आखिरकार यह कौन सा तानाशाही अहंकार है जो विश्वविद्यालय के सर्वसम्मत हित से भी बड़ा हो जाता है? 21 जुलाई को इस अहंकार और संवादहीनता का चरम रूप देखने को मिला। कुलपति और छात्रों के बीच लगातार 6 घंटे तक गतिरोध केवल इसलिए बना रहा क्योंकि छात्र अपनी कुछ मांगों को लेकर ज्ञापन देना चाहते थे और कुलपति ने ज्ञापन लेने से साफ मना कर दिया। सोचिए, एक विश्वविद्यालय में यह हाल है कि संवाद के सामान्य माध्यम तक को ठुकरा दिया जाए।
भले ही कुलपति का नाम बदलकर अब ‘कुलगुरु’ कर दिया गया हो, लेकिन इस पद की जो प्रतिष्ठा और गरिमा कभी थी, उसमें गिरावट आना कोई छुपी हुई बात नहीं रह गई है। अगर जिम्मेदार लोग केवल अटैची भरने पर ध्यान न देते और विश्वविद्यालय के हित पर ध्यान केंद्रित करते, तो: 2021 में जारी RUSA-2.0 के 2.5 करोड़ रुपये यूं ही लेप्स नहीं होते। अब 30 सितंबर तक 15 करोड़ रुपये भी लेप्स होने की नौबत न आती। यदि प्रशासन अपनी जिम्मेदारी पर ध्यान देता तो करोड़ों की लागत से बने संविधान पार्क में 10–12 गलतियों के साथ राज्यपाल से उद्घाटन न करवाया जाता। संविधान की धज्जियां न उड़तीं। ना ही राष्ट्रीय स्तर पर सरकार की बेइज्जती होती। राजस्थान विश्वविद्यालय के भीतर संविधान पार्क के निर्माण से लेकर लाइब्रेरी निर्माण, कोलकाता की एक निजी कंपनी से करोड़ों के MOU, और ई-बुक्स के नाम पर बड़े टेंडर तक हर स्तर पर भ्रष्टाचार और अनियमितता की गंभीर आशंकाएं सामने आई हैं।
सुरक्षा गार्ड्स की नियुक्ति में भी बड़े स्तर पर गड़बड़ी हुई। प्रशासन की मनमानी इस हद तक पहुंच गई कि विश्वविद्यालय की बेशकीमती जमीन पर अवैध कब्जा करने के लिए पेड़ों को योजनाबद्ध तरीके से काटा गया और चारदीवारी तोड़कर निजी गेट लगा दिए गए। यह सब उस परिसर में हुआ जिसे कभी पवित्र शैक्षणिक भूमि माना जाता था। आज की स्थिति यह है कि योग्यता को किनारे कर दिया गया है, चापलूसी हावी हो चुकी है, और प्रशासन में बैठा हर कोई खुद को “अहं ब्रह्मास्मि” समझने लगा है “मैं ही सब कुछ हूँ, मेरा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता।”
लेकिन अति का अंत निश्चित है। यह भ्रम 28 मई की शाम को तब टूटा जब माननीय राज्यपाल श्री हरिभाऊ बागडे जी ने कुलपति के खिलाफ भ्रष्टाचार, प्रशासनिक विफलता, और वित्तीय अनियमितताओं के गंभीर आरोपों की जांच के लिए एक उच्चस्तरीय समिति का गठन कर दिया। यह स्पष्ट संकेत है कि सहनशीलता की सीमा पार हो चुकी है, और अब जवाबदेही तय की जाएगी। अब यह आशा की जा सकती है कि यह जांच समिति शीघ्र अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करेगी और राज्यपाल विश्वविद्यालय हित में कठोर लेकिन न्यायपूर्ण निर्णय लेंगे।
राजस्थान विश्वविद्यालय में आज का छात्र वर्ग अच्छी पेंटिंग और रंग-रोगन देखकर ही यह मान बैठा है कि संस्थान में आमूलचूल परिवर्तन हो गया है। वास्तव में, या तो वह भ्रम में है, या फिर उसमें भी किसी न किसी रूप में डर, असुरक्षा और दमन की आशंका है जो उसे अपनी बात खुलकर कहने से रोकती है। विश्वविद्यालय वह स्थान होता है: जहाँ नए विचार पनपते हैं, जहाँ से सामाजिक और राजनीतिक सुधारों की शुरुआत होती है, और जहाँ छात्र लोकतंत्र के भविष्य के प्रहरी के रूप में तैयार होते हैं। लेकिन आज यहां एक गहरी चुप्पी है। छात्रसंघ चुनावों से लेकर भ्रष्टाचार के विरुद्ध भागीदारी में गिरावट छात्रसंघ चुनावों में वोटिंग प्रतिशत निराशाजनक रहा है। चुनावों की बहाली, प्रशासन की अनियमितताओं के विरोध, या विश्वविद्यालय की नीतिगत विफलताओं के मुद्दों पर छात्रों की भागीदारी कमजोर पड़ी है। इसी निष्क्रियता को देखकर प्रशासन और अधिक हावी हो जाता है। उन्हें लगने लगता है कि कोई विरोध करने वाला नहीं है।


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